कला-संस्कृति : छत्तीसगढ़ी सिनेमा की ऐतिहासिक कृति: ‘घर-द्वार’

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कला-संस्कृति : छत्तीसगढ़ी सिनेमा की ऐतिहासिक कृति: ‘घर-द्वार’

छत्तीसगढ़ की मिट्टी से जुड़ी संस्कृति और परंपराओं को सिनेमा के पर्दे पर जीवंत करने वाली फिल्में हमेशा से ही स्थानीय लोगों के दिलों में विशेष स्थान रखती हैं। ऐसी ही एक ऐतिहासिक कृति है ‘घर-द्वार’, जो छत्तीसगढ़ी भाषा में बनी दूसरी फिल्म है। 1971 में रिलीज हुई यह फिल्म न केवल मनोरंजन का माध्यम बनी, बल्कि छत्तीसगढ़ की पारिवारिक मूल्यों, ग्रामीण जीवनशैली और सांस्कृतिक धरोहर को संजोने वाली एक महत्वपूर्ण दस्तावेज भी साबित हुई। इस लेख में हम इस फिल्म की यात्रा, कथानक, कलाकारों और इसके सांस्कृतिक महत्व पर विस्तार से चर्चा करेंगे, ताकि पाठकों को रोचक और ऐतिहासिक जानकारी मिल सके। यह फिल्म छत्तीसगढ़ की संस्कृति का संवाहक रही है और आने वाली पीढ़ियों के लिए सदैव प्रासंगिक बनी रहेगी, क्योंकि यह हमें परिवार की एकता और परंपराओं की या दिलाती है।

फिल्म का इतिहास और निर्माण

‘घर-द्वार’ की कहानी 1965 से शुरू होती है, जब छत्तीसगढ़ के भनपुरी गांव (अब रायपुर का हिस्सा) के निवासी स्वर्गीय विजय कुमार पांडेय ने इसे बनाने का संकल्प लिया। वे उस समय मात्र 21 वर्ष के थे और फिल्म निर्माण का कोई पूर्व अनुभव नहीं था, लेकिन छत्तीसगढ़ी भाषा और संस्कृति को सिनेमा के माध्यम से दुनिया के सामने लाने की जज्बा उन्हें प्रेरित करता रहा। यह फिल्म छत्तीसगढ़ी सिनेमा की दूसरी कड़ी थी, पहली फिल्म ‘कहि देबे संदेस’ (1965) के बाद। निर्माण कार्य 1965 में शुरू हुआ, लेकिन विभिन्न चुनौतियों के कारण इसे पूरा होने में छह साल लगे। फिल्म 35 एमएम ब्लैक एंड व्हाइट फॉर्मेट में बनी और 1971 में रिलीज हुई।

निर्माण की जिम्मेदारी स्वर्गीय विजय कुमार पांडेय और उनकी पत्नी स्वर्गीय चंद्रकली पांडेय ने संभाली, जो सह-निर्मात्री थीं। निर्देशन का दायित्व निर्जन तिवारी ने निभाया, जो बॉम्बे (अब मुंबई) से आए थे। फिल्म की मुख्य शूटिंग सरायपाली के राजमहल में हुई, जहां स्थानीय राजा महेंद्र बहादुर सिंह ने पूरा सहयोग दिया। उन्होंने अपना महल (पूजा घर को छोड़कर) फिल्म यूनिट को सौंप दिया। बॉम्बे से आई टीम के लिए आवास, भोजन और अन्य सुविधाओं का इंतजाम पांडेय परिवार ने किया। दिलचस्प बात यह है कि ब्राह्मण परिवार होने के कारण, जब यूनिट में मांसाहारी भोजन बनता था, तो पांडेय परिवार अलग से शाकाहारी भोजन करता था। शूटिंग डेढ़ साल तक विभिन्न शेड्यूल में चली, और सारा खर्च पांडेय ने खुद उठाया।

फिल्म का संगीत लखीराम ने तैयार किया, जिसके गीत छत्तीसगढ़ी लोक संगीत से प्रेरित थे और दर्शकों में काफी लोकप्रिय हुए। यह फिल्म उस दौर में बनी जब छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश का हिस्सा था, और स्थानीय भाषा की फिल्मों को कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती थी। संसाधनों की कमी, वित्तीय चुनौतियां और तकनीकी सीमाओं के बावजूद, यह फिल्म छत्तीसगढ़ी सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर बनी।


एक भावुक पारिवारिक ड्रामा

‘घर-द्वार’ की कहानी छत्तीसगढ़ के ग्रामीण जीवन और टूटते परिवारों की समस्या पर आधारित है, जो ‘मदर इंडिया’ जैसी क्लासिक फिल्मों से प्रेरित लगती है। कथानक दो भाइयों – उदय (बड़ा भाई) और सूरज (छोटा भाई) – के इर्द-गिर्द घूमता है। उनके पिता की बचपन में ही मृत्यु हो जाती है, जिसके बाद मां कड़ी मेहनत से दोनों को पालती-पोसती है। बड़ा भाई उदय घर की जिम्मेदारियां संभालता है – खेती करता है, घर चलाता है – ताकि छोटा भाई सूरज पढ़ सके। सूरज को पढ़ाई के लिए रायपुर शहर भेजा जाता है।

शहर से लौटने पर सूरज गलत संगतों में पड़ जाता है। वह शहर में शादी कर गांव लौटता है, साथ में उसकी पत्नी का धूर्त मामा भी आता है, जो घर में कलह पैदा करता है। परिवार की एकता टूटने लगती है, संपत्ति का बंटवारा होता है, और हालात इतने खराब हो जाते हैं कि मां की मृत्यु हो जाती है। उदय अपनी पत्नी के साथ शहर चला जाता है और रिक्शा चलाकर गुजारा करता है। यहां उसे एक सहृदयी सेठ मिलता है, जो उसके पिता का पुराना दोस्त निकलता है। सेठ उदय की मदद करता है। अंत में, पैतृक घर नीलाम होने की नौबत आती है। सेठ उदय को लेकर गांव जाता है, नीलामी में बोली लगाता है और घर खरीदकर दोनों भाइयों को सौंप देता है। कहानी का अंत सकारात्मक संदेश के साथ होता है – परिवार की एकता और नैतिक मूल्यों की जीत।

यह कथानक रोचक है क्योंकि इसमें छत्तीसगढ़ के ग्रामीण परिवेश, लोक परंपराओं और भावनात्मक संघर्ष को बखूबी चित्रित किया गया है। दर्शक खुद को पात्रों से जोड़ पाते हैं, और फिल्म का संदेश आज भी प्रासंगिक है – शहर की चकाचौंध में खोकर परिवार को न भूलें।

स्थानीयता और बॉम्बे का अद्भुत मेल

फिल्म की स्टारकास्ट में बॉम्बे के स्थापित कलाकारों के साथ स्थानीय प्रतिभाओं का मिश्रण था, जो इसे और अधिक प्रामाणिक बनाता है। मुख्य भूमिकाएं इस प्रकार हैं:
– दुलारी बाई: मां की भावुक भूमिका में, जिन्होंने अपनी अभिनय से दर्शकों को रुलाया।
– कान मोहन: बड़ा भाई उदय के रूप में, जिनकी मेहनत और त्याग की कहानी दिल छू लेती है।
– जफर अली फरिश्ता: छोटा भाई सूरज।
– रंजीता ठाकुर: बड़े भाई की पत्नी।
– गीता कौशल: छोटे भाई की पत्नी।
– शिवकुमार दीपक: छोटे भाई की पत्नी का मामा (धूर्त चरित्र)।
– अन्य कलाकार: बसंत दीवान (मुनीम), इकबाल अहमद रिजवी (दलाल), नीलू मेघ, भगवती दीक्षित, भास्कर काठोटे, आदि।

स्वर्गीय विजय पांडेय ने खुद सेठ की छोटी भूमिका निभाई। संगीतकार लखीराम के गीत, जैसे लोकधुनों पर आधारित ट्रैक, फिल्म की जान बने।

पूरी टीम ने छत्तीसगढ़ी बोली को प्रामाणिक तरीके से पेश किया, जो उस दौर में एक बड़ी उपलब्धि थी।


संस्कृति का संवाहक

‘घर-द्वार’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ की संस्कृति और परंपराओं का जीवंत दर्पण है। यह फिल्म ग्रामीण जीवन, परिवार की एकता, मां की ममता, भाईचारे और नैतिक मूल्यों को उजागर करती है, जो छत्तीसगढ़ी समाज की जड़ें हैं। उस समय जब हिंदी सिनेमा का बोलबाला था, यह फिल्म स्थानीय भाषा में बनी और छत्तीसगढ़ी लोकगीतों, परिधानों और रीति-रिवाजों को दिखाया। यह टूटते संयुक्त परिवारों की समस्या को उठाती है, जो आज भी प्रासंगिक है – शहर की भागदौड़ में गांव और परिवार की याद।

फिल्म ने छत्तीसगढ़ी सिनेमा को नई दिशा दी और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा बनी। राज्य गठन (2000) से पहले बनी होने के बावजूद, यह साबित करती है कि स्थानीय कहानियां वैश्विक अपील रखती हैं। आज यूट्यूब पर उपलब्ध होने से नई पीढ़ी इसे देख सकती है और अपनी जड़ों से जुड़ सकती है। यह फिल्म हमें सिखाती है कि संस्कृति का संरक्षण कितना जरूरी है, ताकि हमारी परंपराएं आने वाली नस्लों तक पहुंचें।

सदैव प्रासंगिक विरासत

‘घर-द्वार’ छत्तीसगढ़ी सिनेमा की नींव है, जो हमें बताती है कि सच्ची कहानियां कभी पुरानी नहीं होतीं। यह फिल्म न केवल ऐतिहासिक है, बल्कि भावनात्मक रूप से समृद्ध भी। आने वाली पीढ़ियां इससे सीख सकती हैं कि परिवार और संस्कृति ही जीवन की असली संपदा हैं। अगर आप छत्तीसगढ़ की धरोहर को समझना चाहते हैं, तो इस फिल्म को जरूर देखें – यह एक यात्रा है जो दिल को छू लेगी। जय जोहार छत्तीसगढ़! विनोद डोंगरे

फ़िल्म ‘घर द्वार’:-

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