डॉ. आईडी तिवारी •
उच्च शिक्षा में व्याप्त कमियां वर्षों से सुधार की राह देख रही हैं। सर्वोत्तम बनने के लिए सर्वश्रेष्ठ अधोसंरचना की आवश्यकता होती है। देश में कुछ चुनिंदा संस्थानों को छोड़ कर शेष उच्च शिक्षा संस्थान कमजोर अधोसंरचना और घटिया मानव संसाधन के शिकार हैं। सामाजिक न्याय का गैरवाजिब, असंगत, राजनीतिक एजेंडा जब जिदपूर्वक लागू किया जाता है तो उसके परिणाम इसी तरह घातक होते हैं। सामाजिक न्याय आवश्यक है, पर उसे तर्कसंगत बनाने की आवश्यकता है।
विदेशों में शिक्षा हेतु पलायन करनेवाले छात्रों में जादातर वे प्रतिभाशाली छात्र हैं जो इसी कुव्यवस्था के कारण देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिला नहीं ले पाते। ऐसे छात्रों का बहुत बड़ा वर्ग शोध के लिए अथवा नौकरी के लिए, हमेशा के लिए, विदेशों में ही रुक जाता है। बैंको द्वारा दिए गए एजुकेशन लोन का आंकड़ा मेरे दावों की पुष्टि करता है।
शिक्षा पर भारत सरकार जीडीपी का 3 परसेंट भी नहीं खर्च करती है, जब की लक्ष्य 6 परसेंट खर्च करने का है। आधे से अधिक उच्च शिक्षा संस्थानों में आधे से अधिक पद खाली हैं। शेष जो भरे हैं, उन पर अंशकालिक शिक्षक कार्यरत हैं। ऐसे शिक्षक हमेशा दबाव में रहते हैं। कमजोर अधोसंरचना और नगण्य मानवसंसाधन के साथ कुलपतियों से उम्मीद की जाती है कि वे पांच सालों में कमाल कर देंगे।
शिक्षकों को यूजीसी द्वारा निर्धारित वर्क लोड से कई गुना ज्यादा काम करना पड़ता है, जिससे उन्हें शायद ही शोध हेतु समुचित समय मिल पाता है। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालयों में व्याप्त राजनैतिक हस्तक्षेप एक बड़ी समस्या है। स्टेट यूनिवर्सिटीज में यह हस्तक्षेप कुछ ज्यादा ही है। इसके रहते कुलपतियों और कुलसचिव का काम करना बहुत कठिन होता जा रहा है।
उच्च शिक्षा के साथ लगभग हर वर्ष नूतन प्रयोग किए जाते हैं। ये प्रयोग कभी भी अंजाम तक नहीं पहुंचते हैं। अब नई शिक्षा नीति कुछ अच्छे परिणाम देगी, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। कम से कम उत्तर प्रदेश में इसकी प्रगति संतोषजनक है।
(लेखक डॉ. आईडी तिवारी सुविख्यात शिक्षाविद हैं. आप छत्तीसगढ़ स्थित इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ तथा गुरू घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय बिलासपुर जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में रजिस्ट्रार, प्राध्यापक और डीन के पदों पर कार्य कर चुके हैं. यह आलेख उनके फेसबुक वाल से साभार लिया गया है.)

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