
बस्तर दशहरा, छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र का एक अनूठा और विश्वविख्यात त्योहार है, जो न केवल धार्मिक उत्साह का प्रतीक है, बल्कि आदिवासी संस्कृति, सामाजिक एकता और आर्थिक समृद्धि का जीवंत प्रमाण भी। दुनिया का सबसे लंबा दशहरा कहलाने वाला यह पर्व 75 दिनों तक चलता है, जो आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होकर विजयादशमी तक समाप्त होता है। 2025 में यह 2 अक्टूबर को विजयादशमी के साथ चरम पर पहुंचा, लेकिन इसके समापन की रस्में 7 अक्टूबर को मावली माता की डोली विदाई के साथ संपन्न हुईं। इस वर्ष के आयोजन में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की उपस्थिति ने इसे राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया। बस्तर दशहरा मात्र एक उत्सव नहीं, बल्कि बस्तर की आत्मा है, जो प्रकृति, परंपरा और मानवता के सामंजस्य को दर्शाता है।
बस्तर दशहरा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
बस्तर दशहरा की जड़ें 15वीं शताब्दी में काकतीय वंश के महाराजा पुरुषोत्तम देव के शासनकाल से जुड़ी हुई हैं। किंवदंती के अनुसार, राजा ने बस्तर राज्य की कुलदेवी मां दंतेश्वरी की पूजा के लिए इस पर्व की शुरुआत की, जो नागवंशी राजाओं की परंपरा का हिस्सा बन गया। यह त्योहार रामायण की कथा से प्रेरित तो है, लेकिन इसमें रावण का दहन नहीं होता; इसके बजाय देवी की आराधना पर जोर दिया जाता है। 17वीं शताब्दी में चंद्राकर वंश के राजाओं ने इसे और विस्तार दिया, जब बस्तर के राजा दंतेश्वरी मंदिर को राज्य का आधिकारिक केंद्र बनाकर विभिन्न जनजातियों को इसमें शामिल किया।
ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, यह पर्व ब्रिटिश काल में भी निर्बाध चला, जो बस्तर की सांस्कृतिक स्वायत्तता का प्रतीक था। 2023 में महामारी के बाद की बहाली के दौरान यह 107 दिनों तक चला, लेकिन सामान्यतः 75 दिनों का होने से यह अपनी अनूठी पहचान बनाए रखता है। यह न केवल धार्मिक, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक एकीकरण का माध्यम भी रहा है, जहां राजा आदिवासी सरदारों के साथ मिलकर राज्य की एकता को मजबूत करते थे।
परंपराओं का जीवंत चित्रण
बस्तर दशहरा की परंपराएं आदिवासी जीवनशैली से प्रेरित हैं, जो प्रकृति पूजा और सामुदायिक सहभागिता पर आधारित हैं। पर्व की शुरुआत आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को ‘पाटा यात्रा’ से होती है, जिसमें देवी के प्रतीकात्मक पाट (पेड़ के टुकड़े) को दंतेश्वरी मंदिर लाया जाता है। इसके बाद ‘कंचन गाड़ी’ और ‘निशा यात्रा’ जैसी रस्में होती हैं, जहां रात के अंधेरे में देवी की मूर्ति को सजाया जाता है।
विजयादशमी के दिन मुख्य आकर्षण ‘रथ यात्रा’ है, जिसमें 16 फीट ऊंचा लकड़ी का रथ देवी दंतेश्वरी को समर्पित होकर सजाया जाता है। हजारों आदिवासी इसे खींचते हैं, जो एकता का प्रतीक है। एक अनूठी परंपरा पशु बलि की है, जो देवी को प्रसन्न करने के लिए की जाती है—यह रामायण के रावण दहन से भिन्न है। इसके अलावा ‘मुरिया दरबार’ में युवा आदिवासी राजा के दरबार में अपनी मांगें रखते हैं, जो लोकतांत्रिक भावना को दर्शाता है। पर्व में राउत नाचा, कर्मा नृत्य और पंडवानी गायन जैसे लोक कलाएं प्रदर्शित होती हैं, जो बस्तर की सांस्कृतिक विविधता को जीवंत बनाती हैं। 2025 में काछन देवी जत्रा के दौरान कांटों के झूले पर देवी की सवारी एक प्रमुख आकर्षण रही।
बस्तर दशहरा का समग्र महत्व
बस्तर दशहरा का महत्व धार्मिक सीमाओं से परे है। यह अच्छाई पर बुराई की जीत का प्रतीक तो है ही, लेकिन आदिवासी समाज में देवी की भूमिका को रेखांकित करता है। मां दंतेश्वरी को राज्य की रक्षक माना जाता है, और यह पर्व प्रकृति के साथ सामंजस्य सिखाता है। UNESCO द्वारा इसे अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर घोषित करने की मांग लंबे समय से हो रही है, जो इसके वैश्विक महत्व को दर्शाता है। 2025 में अमित शाह ने दंतेश्वरी मंदिर में पूजा कर नक्सलवाद उन्मूलन की प्रार्थना की, जो पर्व को शांति और विकास के संदेश से जोड़ता है।
सामाजिक महत्व: एकता का पुल
सामाजिक दृष्टि से बस्तर दशहरा विभिन्न जनजातियों—गोंड, मुरिया, हल्बा आदि—को एक मंच पर लाता है। यह सामाजिक सद्भाव का प्रतीक है, जहां जाति-जनजाति की सीमाएं धुंधली हो जाती हैं। मुरिया दरबार जैसी परंपराएं युवाओं को सशक्त बनाती हैं, जबकि महिलाओं की भूमिका देवी पूजा में प्रमुख होती है। 2025 के आयोजन में अमित शाह ने नक्सलियों को आत्मसमर्पण का आह्वान किया, जो पर्व को शांति स्थापना का माध्यम बनाता है। यह त्योहार सामाजिक न्याय और समावेशिता को बढ़ावा देता है, जिससे बस्तर का सामाजिक ताना-बाना मजबूत होता है।
आर्थिक महत्व: पर्यटन का इंजन
आर्थिक रूप से बस्तर दशहरा स्थानीय अर्थव्यवस्था का रीढ़ है। लाखों पर्यटक आकर्षित होते हैं, जिससे होटल, परिवहन और हस्तशिल्प उद्योग को लाभ मिलता है। बांस की टोपियां, तेंदू पत्ता से बने सामान और स्थानीय व्यंजनों का व्यापार फलता-फूलता है। 2025 में डाक विभाग द्वारा विशेष डाक टिकट जारी करना भी आर्थिक प्रचार का हिस्सा था। यह पर्व आदिवासी कारीगरों को बाजार प्रदान करता है, जिससे उनकी आजीविका सुधरती है। पर्यटन से होने वाली आय बस्तर के विकास में योगदान देती है, जो नक्सल प्रभावित क्षेत्र की प्रगति का आधार बनती है।
सांस्कृतिक महत्व: धरोहर का संरक्षण
सांस्कृतिक दृष्टि से यह पर्व बस्तर की आदिवासी विरासत का जीवंत संग्रहालय है। लोक नृत्य, संगीत और रीति-रिवाज नई पीढ़ी को परंपराओं से जोड़ते हैं। राउत नाचा जैसे प्रदर्शन आदिवासी इतिहास को जीवित रखते हैं, जबकि पंडवानी महाकाव्यों का गायन साहित्यिक धरोहर को समृद्ध करता है। यह त्योहार सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देता है, जहां बाहरी दुनिया आदिवासी जीवन को समझती है। UNESCO की मान्यता से यह वैश्विक पटल पर छत्तीसगढ़ की पहचान बनेगा।
2025 में बस्तर दशहरा: विशेष आयोजन और संदेश
इस वर्ष बस्तर दशहरा 2 जुलाई से शुरू होकर 7 अक्टूबर को समाप्त हुआ। अमित शाह की उपस्थिति ने इसे राष्ट्रीय उत्सव का रूप दिया, जहां उन्होंने 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद समाप्ति का लक्ष्य रखा। काछन देवी जत्रा और रथ यात्रा के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए। यह आयोजन न केवल आस्था का, बल्कि विकास का प्रतीक बना।
एक सांस्कृतिक चमत्कार
बस्तर दशहरा बस्तर की आत्मा है—जो इतिहास को परंपराओं से जोड़ता है और भविष्य को आशा देता है। इसका सामाजिक एकीकरण, आर्थिक उन्नति और सांस्कृतिक संरक्षण हमें सिखाता है कि उत्सव केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि जीवन का सार हैं। जैसे ही मावली माता की डोली विदा होती है, बस्तर फिर से शांति और समृद्धि की ओर अग्रसर होता है। यह पर्व हमें याद दिलाता है: अच्छाई की जीत अनंत है।

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