‘कर्मण्ये वा धिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोअस्त्व कर्मणि।।’
भगवान श्रीकृष्ण हा गीता मा कहे हे। कि,!!! हे मनुष्य प्रानी ला अपन करम करना चाही अउ फल के इच्छा ला परमात्मा ऊपर छोड़ देना चाही, मतलब करम करना भर मनखे के वश के बात आय अउ फल देना नइ देना भगवान के इच्छा ऊपर निर्भर हे। तब तो हम इहू केहे सकत हन कि, हमर करम अच्छा होही ता खच्चित ही ओखर फल घलो अच्छा होही, मीठा होही। न्यूटन के गति के नियम घलो ये सिद्ध करथे, क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया बल, मतलब जइसन हमर काम, ओतकेच मिलही दाम। हम कर्म करे के पहिली अच्छा फल के आस करबो, ता करम के रस्ता में कतकोन प्रकार के बिधन आ सकत हे, तभे भगवान हा फल के आसक्ति ले बाँचे बर बरजे हे,ताकि हमर मन दुच्छा करम भर में लगे राहय, चाहे ओखर परिणाम काँही आ
करम करैया घलो तीन प्रकार के होथे, एक तो सोंचथे भर…… करय काँही नही। दूसर सोंचथे अउ कुछ करथे…… फेर थोरिक विपत्ति आथे ताहन वो काम ला अधूरा छोड़ देथे, विपत्ति देख घबरा जथे, दुबारा वो काम ला छूए के प्रयास घलो नइ करय अउ तीसर मनखे कर्मठ होथे…….. जउन जइसन सोंचथे वो वइसनेहे कर बताथे, ओखर रस्ता में कतको काँटा आथे, कतको बाधा आथे, असफलता हाथ लगथे, फेर वोहा असफलता ला कोन्हो गलती मान के दूसरैया सुधारे के उदीम करथे, अवैया मुश्किल ला टार के अपन सोंचे लक्ष्य ला पूरा कर लेथें—–आवव मैं इही सन्दर्भ में तुँहला एक ठन कहानी सुनावत हँव!!!!
एक राजा के राज में डंचगहा अउ डंचगहीन रहिथे। एक दिन सँझा बेरा उही नगर मा अपन नाच देखाय खातिर अपन नान्हे लइका अउ बाजा रुंजी मन ला धरे मंडप ला गड़ियावत रिहिस, देखैया अउ अवैया जवैया मनखे मन काहय, कि भैया तैं इहाँ काय करत हस, सब नाचा ला देख लिंही अउ अपन अपन घर कोती मसक दिही, तँय चुचवावत रहि जबे, काबर कि इहाँ के राजा के आज्ञा हे, ना दान देवय ना दान देवन दय, जेन ओखर आज्ञा के उलंघन करही तेला राजा दंड दिये जाही। डंचगहा कखरो बात मा ध्यान नइ दिस अउ कहिथे अब परिणाम काँही मिलय, मोला तो बस मोर काम ला करना हे।
मंडप तइयार होगे, नाचा गाना चालू होगे, नाचा देखे बर भीड़ घलो बने जुरियागे, डंचगहा बाजा बजावत राहय अउ डंचगहीन सँजे सँवरे गोड़ मा घुंघरू बाँधे, ताल मा ताल मिलावत गावत राहय अउ ठुमकत राहय। पूस के महीना, कड़कड़ावत जाड़, बाँही ला चपके लोग बाग नाचा के मजा लेवत रिहिन हे। नाच बड़ा मनभावन लागत रिहिस हे, तेखर सेती कटकट ले भीड़ घलो सकलाय रहय।
एती रात जतके गहीर होय, डंचगहीन के मन अधीर होय।
नाचत-नाचत मुँधरहा होगे रात थोरकिन बाँचे रिहिस, गीत अउ नाच के मधुरता में कोनो ठउर ले नइ टरत रिहिन – फेर काय करबे राजदंड के भय मा कोन्हो धेला के चढ़ावा नइ दिस।रात भर के नचई मा डंचगहीन थक के कोंघर गे राहय तब उदास होके अपन डंचगहा ला आरो देवत ए गीत मा कहिथे———-
‘नाचत गावत रात पहागे, थकगे जोंड़ी जाँगर।
कहे डंचगहीन सुनव मयारू, धीर बजा अब माँदर’
अतका बात सुनके धीरज बँधावत डंचगहा कहिथे——
‘जादा बीतगे थोरकिन बाँचिस, अब थोड़ा हर जाय
डंचगहा कहिथे मोर पिरोहिल, भंग ताल में झन आय’
डंचगहा कहिथे कि ए मोर सँगवारी—-सरी रात गुजरगे, रात पहाती आगे, अब बिहान होय बर थोरिक बेरा बाँचे हे, तब जउन बाँचे हे तेला काबर गँवाबो, नाचा जइसन चलत हे तइसने चलन दे, हमर ताल में भंग नइ परना चाही।
दूनो के वार्तालाप ला सुनके एक महात्मा के हृदय परिवर्तन होगे अउ वोहा अपन देह मा लपेटे कम्बल ला भेंट कर देथे, महात्मा ला दान देवत देख के तीर मा बइठे राजा के बेटा हा हीरा जवाहरात ले जड़ें अपन कोट ला डंचगहा ला दे देथे, उही भीड़ मा बइठे राजा के बेटी घलो काबर पीछू रहितिस भला, अपन सोना के कंगन,मोटरा मा बाँधे कीमती साड़ीं अउ सिंगार के सामान ला भेंट कर देथे। महात्मा, राजा के बेटा अउ बेटी ला भेंट करत देखके,बाँचे दर्शक मन घलो यथा शक्ति भेंट चढ़ाथे, काबर कि ए जग के रीत हे, जउन काम बड़े लोगन मन करथे तब उन ला देख के छोटे मन घलो उही रस्ता ला अपनाथे। डंचगहा अउ डंचगहीन कभू जिनगी मा अतका धन नइ कमाय रिहिस अउ ना सपना में सोंचे रिहिस कि हम ला कभू अतेक जादा धन मिल पाही। आज उन ला ओखर करम के मीठ फल मिले रिहिस।
एती राजा हा दान के बात ला सुनके क्रोधित हो जथे अउ महात्मा, अपन बेटा अउ बेटी ला दरबार में हाजिर होय के आज्ञा देथे, काबर कि राजाज्ञा के उलंघन होय रिहिस हे– राजा सबले पहिली महात्मा ला पूँछथे,काबर कि दान करे के शुरुआत महात्मा करे रिहिस — कस महराज तँय जानत हस हमर राज में कोनो ला दान दक्षिणा देना वर्जित हे, सख्त प्रतिबंध हे, तिल तिल करके हम प्रजा ला सुखी राखे बर धन सकेले हन तेला तुमन नाच गाना में दान कर देव, ए हर तो धन अउ राजाज्ञा दूनो के अपमान हरै। अब आप ला का सजा दे जाय।
तब महात्मा कहिथे – गलती माफ करव सरकार, गलती तो होय हे, फेर मै ओखर ले बड़ें गलती करे बर जात रेहे हँव अब मोला फाँसी में चढ़ा दिहव तभो कोनो दुख नइहे। राजा किहिस बने फरिहा के बता, महात्मा कहिथे – का करव राजाजी, मोर जिनगी के तीन पन अइसने साधू बने फक्कड़ पन मा बीतगे, अब चौथापन के चिंता हर तन ला घुना सही खात रिहिस हे, सोंचत रेहेंव कहूँ बिहाँव रचा लेतेंव, सियान होगे हँव कोनो कानी खोरी आ जतिस ता मोर सेवा सटका बजातिस अउ ए बुढ़ापा बइरी आसानी ले कट जतिस फेर वो डंचगहा के कहे एक ठन बात मोर विचार ला बदल दिस।
‘जादा बीतगे थोरकिन बाँचिस, अब थोड़ा हर जाय।
डंचगहा कहिथे मोर पिरोहिल, भंग ताल में झन आय।।’
तब मैं सोंचेव सरी उमर तो पहवा डरेंव, आज मरहूँ ते काली, जिनगी के कोनो ठिकाना नइहे, तब काबर अपन चोला में दाग लगाहूँ, चौथा पन ला घलो भगवान के भक्ति मा अकेल्ला पहवाहूँ – मोर जिनगी के ताल मा भंग नइ आना चाही, इही बात मोर मन ला बदल दिस, डंचगहा हा मोर गुरु बनगे, मैं तो रमता जोगी बहता पानी, फक्कड़ साधू सन्यासी, मोर करा कमंडल अउ कम्बल के छोड़ काँही नइ रिहिस तेखर सेती मैं अपन कंबल ला दान कर देंव।
महात्मा के बात ला सुनके राजा हा अपन बेटा ला पूँछथे – कइसे बेटा तैं मोर बेटा होके मोर आदेश के उलंघण काबर करे होबे,तब ओखर बेटा कहिथे – पिताजी मैं ए राज्य के युवराज आँव, पढें लिखे हँव, जवान हँव, एती वोती जतर कतर खाली गिंजरत रहिथँव। आप बुजुर्ग होय के बाद भी अभी तक राजपाट में कुंडली मारे बइठे हव, मैं सोंचे रेहेंव पिताजी ला जहर महूरा देके मार डरहूँ अउ मैं राजा बन जाहूँ – फेर डंचगहा के उही बात –
‘जादा बीतगे थोरकिन बाँचिस, अब थोड़ा हर जाय।
डंचगहा कहिथे मोर पिरोहिल, भंग ताल में झन आय।।’
उनखर रहस्य अउ ज्ञान भरे बात मोला अइसन करे ले रोक लिस, मैं सोंचेंव पिताजी अब सियान होगे, आज नही ते काली मोला राजा बनना च हे कहिके मैं अपन कुटिल विचार ला त्याग देंव।
अब ओसरी राजा के बेटी के रिहिस हे – बेटी कहिथे कि पिताजी मैं जवान होगे हँव, कहिथे जेखर बेटी जवान हो जथे – ओखर दिन के चैन अउ रात के नींद हराम हो जथे ओखर दाई ददा ला भूख-प्यास नइ जनावय, पर आप तो अपन राजपाट के धुन मा बिधून हाबव, तेखरे सेती मैं अउ मंत्री के बेटा उड़हरिया भगैया रेहेन – लेकिन मोला ए डंचगहा अउ डंचगहीन के प्रेरणा भरे गीत मोर मन मस्तिष्क ला झकझोर दिस मोर बढ़ें हुए कदम ला खींच लेंव, मैं सोंचेंव पिताजी के तीन पन बीतगे, चौथा पन में काबर ओखर इज्जत में दाग लगाहूँ, काबर दुख पहुँचा हूँ कहिके अपन विचार ला बदल देंव, डंचगहा मोर गुरु बनगे, तेखर सेती मैं अपन हाथ के कंगन अउ साड़ीं ला भेंट कर देंव।
राजा ला तीनों के बात जँचगे, सत्ता के मद में अपन कर्तव्य मा होय भूल के घोर पश्चाताप करत साधू ले क्षमा प्रार्थना करत कहिथे महराज मैं राजमद मा अंधरा होगे रेहेंव आप सब झन मोर आँखी ला जग जग ले उघार देंव, आज सन्यास लेके अवस्था में घलो मैं राज करत अपन कर्तव्य ला भूलागे रेहेंव – आप जइसन महात्मा ला भविष्य के चिंता खावत रिहिस हे तब ये मोर शासन बेवस्था के दोष हरै जउन एक साधू सन्यासी मन के हियाव नइ कर सकेंव। आज ले आप हमर राज अतिथि बनके रइहव,राज काज में सलाह दिहव अउ आपके उचित सम्मान होही।
राजा हा तुरते पंडित बलवाके राज्यभिषेक के मुहरत निकलवाथे अउ अपन बेटा ला राजपाट सौंप देथे अउ अपन बेटी के बिहाव मंत्री के बेटा संग सम्पन्न करवाथे।तेखर पाछू वो डंचगहा अउ डंचगहीन ला बलाके उचित सम्मान करिस।जेखर प्रेरणा भरे गीत हा आज सबके आँखी ला खोल दिस।
भगवान केहे घलो हे –
‘योगस्थ कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय। सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।’
हे!!!अर्जुन जय पराजय, लाभ हानि के आसक्ति ला छोड़के मनखे ला करम करना चाही अउ अपन करम ला भगवान ला अर्पित कर देना चाही।
दार भात चुरगे, मोर किस्सा पुरगे.
नारायण प्रसाद वर्मा ‘चंदन’
ढ़ाबा-भिंभौरी, बेमेतरा छग
7354958844

COMMENTS